कितने रंग जीवन के हमने अपने त्योहारों में शामिल किए।
पर अब रंगों के मायने ही धुमील से हुए ।
एक रंग है मज़ाक का जो ज़िन्दगी तो क्या सिनेमाघरों में भी बोझिल हो गया है- जैसे कड़वी बातें कह के जी बहलाने की आदत पड़ गई है हमें। नाटकों के कॉमिक रिलीफ़ का ये दौर अब वो हलकी मुस्कराहट और मीठी खुशी से कोसों दूर है ।
"ऐसा ही एक रंग है जो करता है बातें भी, जो भी इसको पहन ले अपना सा लगता है " [निदा फाजली ]
इस रंग की खुशबू भी निराली है पर अब ये बंद आंखों का ख्वाब और खुली आंखों का भ्रम भर ही है - अब कौन संभाले रिश्तों के सपनों और सच्चाई को।
इन दो रंगों की निराली भरपाई है हमारी होली!! कम से कम सा में एक बार पड़ोसियों से मिलना का मौका तो देती है ..... आओ की रंगों की होड़ में हम रंगभेद समेत अन्य भेदभाव भूल जाएँ !!!
होली मुबारक !!
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