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वैसे हर बार की दिवाली बहुत ख़ास नहीं होती थी । पर छ्ठ की धुन और छुट्टी की कमी में अक्सर दिवाली घर जाने की सफर में कटता था । ट्रेन से घरों के जगमगाते दीये देख के दिवाली मनाना अपने आप में एक अनोखा अनुभव था । एक बार तो दिवाली की रात ही घर पहुँची थी । पिछले साल अपने हॉस्टल की दिवाली की रंगोली और पूजा अच्छी थी । चाहे - अनचाहे अपने सुपरवाइज़र के घर गई थी ..और अगले दिन सुबह घर के लिए रवाना हुई थी ।
चाहे कुछ ख़ास न हुआ हो दिवाली पे पर एक त्योहार का एहसास काफी था खुश करने को । दूसरों को मनाते देखते भी, एक खुश होने की वजह रहती थी । मैं उन सभी छोटी -छोटी अनुभवों को आज बस याद कर रह हूँ । उनकी अहमियत और छोटी खुशियाँ आज तक टेकेन -फॉर -ग्रांटेड था ।
दिवाली घर हर बार नही बनाया पर मुझे सबसे प्रिय है । लाइट्स और दीया की तैयारियाँ अच्छी थीं । दीये को पानी में डुबोने पर उसके बुलबुले और सोंधी महक अच्छी होती है। शाम की चहल पहल...पटाखों की आवाज़ से गूंजता शहर ध्वनि प्रदुषण का प्रतीक था पर आज का सन्नाटा उससे भी संगीन जान परता है ।
सब कुछ है मैं यहाँ भी मना सकती हुं...पर न बाहरी शोरो-गुल है न भीतरी उल्लास ।
पर बेवकूफी है ऐसी शिकायतें ....और बेहतर है की अब भी मैं कम-से-कम भीतरी उल्लास को जागृत और कायम रखूं ...इन्टरनेट के ज़रिये काफी हद तक बाहरी शोरो-गुल भी मुझसे बहुत दूर नहीं ।
दिवाली मुबारक आप सबको !
और शुक्रिया उन सारे पिछले सालों का की अब भी मैं खुश होने की केपेबिलिटी रखती हुं।
दूर से मैं ज़्यादा समझ पाई दिवाली की अहमियत !