Thursday, April 5, 2012
निर्धनता - कितनी बेचारी कितनी तबाही
सामाजिक प्राणियों में मनुष्य अपनी आर्थिक समपन्नता की अथाह अभिलाषाएं रखता है. पहनावे से घर के रख-रखाव तक, पढ़ाई के चुनाव से नौकरी के उपाय तक, बच्चों की परवरिश से उनके विवाह तक.... एक गहरी परेशानी बनी रहती है ज़हन में सबके - "मैं कहीं पीछे न रह जाऊं ." हालांकि इस निर्धनता का आभास बस एक तुलनात्मक निर्धनता है जो हम अपने आर्थिक वर्ग के हिसाब से या अपने आस-पड़ोस के अन्य मनुष्यों के आर्थिक स्थिती से आंकते हैं. इस निर्धनता के आभास का एक मात्र कारण है हमारा बदलता रहन-सहन और विस्तृत पर महंगा होता बाजार.
मैं मध्यम वर्गीय होकर भी कहीं अपनी सीमीत उपलब्धियों को अपनी और सामजिक आकांक्षाओं को, जो समाज में मेरे तबके के लोगों के लिए निश्चित हुई है, उसकी कश-म-कश में लगी हूँ. इन सबसे परे रहना नामुमकिन है ये मानती हूँ और समझती हूँ आज... मगर इस कश-म-कश के आभास ने मुझे ये बताया है की यदि हमारी आर्थिक कमियों की पूर्ति की आशा बरकरार न रह सके या फिर यदि हम स्वयं को सजग बनाने में कामयाब हो सके तभी जिंदगी खुशहाल है. चादर के अनुसार पैर फैलाना तो अवश्यम्भावी है पर अब अनायास ही बढ़ती चादर का तो एक ही उपाय बचता है - वो है अपनी आमदनी बढ़ाना.
एक तरीके से दोनों की ही आवश्यकता है. आमदनी में तरक्की की और खर्च में सजग रहने की. गृहस्थी का पहला नियम शायद यहीं से शुरू होता है.
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