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Monday, March 8, 2010

आई आई टी जंगल


आज निःसहाय बैठी हूँ कमरे में अपने . सोचती हूँ शायद इसमें किसी का दोष नहीं - न मनुष्य का और न ही किसी पशु का. प्रकृति के नियम समझने में हमें काफी वक़्त लगेगा . हर वक़्त मनुष्य होने का दायित्व निभाना हम अपना हक़ समझने लगे हैं . पर ऐसे तथ्य हमें अपनी निःसहायता विस्मृत नहीं होने देंगे .
मैं यह अपनी नन्ही साथी की याद में लिख रही हूँ . पर उसकी मृत्यु पर रोना और अपनी स्वार्थी व्यथाओं को संभालकर मैं बस एक घटना बयान करना चाहती हूँ . इस परिसर में आने के बाद ही मैं बिल्लियों से इतना घुलने-मिलने लगी थी. पिचले साल मैं 'प्रादा' से मिली थी. उसने खुद को ज़ख्मी कर लिया था और लंगर रही थी. मेरे हॉस्टल वींग में डॉम्स की एक छात्रा ने उसका उपचार कराया पर चूँकि वो हॉस्टल छोड़ने वाली थी, मुझे उसकी देखभाल का जिम्मा सौंप दिया था. सही समय पर उपचार होने की वजह से वह बिलकुल ठीक हो गयी.
कुछ छह-सात महीनों के बाद जब कई 'कैट्स' मेरे मित्र बन चुके थे और कई मित्र जो 'कैट्स' की ओर संवेदनशीलता रखते थे मेरे 'कैट मित्र' की टोली में शामिल हो गए थे. इन्ही दिनों हमें एक चुहिया मिली जो असल में 'बिल्ली' थी . उसकी 'म्याऊं' 'चूँ चूँ' जैसी सुनाई पड़ती थी. जिस मित्र ने उसकी आवाज़ सुनकर उसे ढूंढने को बुलाया था, उसका ढ़ृढ़-निश्चय था की उसका ख़याल हम रखें . हालांकि मैं पेट्स रखने में विश्वास नहीं करती, मैंने इस कार्य में सहियोग दिया. धीरे- धीरे वह मेरी या शायद मैं उसकी आदि हो गयी थी . अब वह बड़ी हो गयी थी और स्वतंत्र भी. बिल्लियाँ स्वभाव से स्वतंत्र होती हैं यह जाना मैंने.
और भी बहुत कुछ सिखाया इस छोटी फ़र्री मित्र ने , जिसमे हर जीव छोटी से छोटी क्यूँ न हो उसकी ओर विनम्र होना शामिल है. एक मित्र जो मेरी तरह उसका ख्याल रखती थी, कहती "ये कुछ नहीं करती पर सारा टेंशन भुला देती है."
एक रात एक छात्रा ने जो वींग में नै आई थी, पूछा " हमारे हॉस्टल की साड़ी बिल्लियाँ सुरक्षित तो हैं न ?" उसने बताया कुछ कुत्ते एक बिल्ली को मारने की कोशिश कर रहे थे. मुझे अकस्मात् ज्ञात हुआ की रात ग्यारह साढ़े - ग्यारह बजे, शायद इसीलिए बन्दर चिल्ला रहे थे और इतने काक मंडरा रहे थे! घबराई सी जब मैं कथित जगह पर गई तो कुछ नही था. सेक्यूरिटी आंटी को पु्छा तो शायद उन्होंने यूँ ही कह दिया या स्टोरी बना दी की सांप को पेड़ पर देख कर भी बन्दर चिल्लाते हैं.
अगले दिन कुछ मित्रों ने उसे सरयू और सी सी डी और सरयू के बीच की झाड़ियों में उसका शव देखा तो मुझे इत्तला दी . यहाँ से कुछ नए सवाल शुरू होते हैं जिस पर इस परिसर में रहने वाले बुद्धिजीवी ही विचार कर पाएंगे :
१. क्या कुत्तों का ऐसे स्वतंत्र घूमना वाजिब है ? अगर आप सब को याद हो तो कई हिरण भी कुत्तों के 'इलाके की लड़ाई' के शिकार बन चुके हैं. लेकिन एक बात अब भी उलझी सी है, मनुष्य के हस्तक्षेप से हम कितना बचा पाएंगे इनको. हालांकि इन कुत्तों की हालत भी दयनीय है.
२. पशुओं की सुरक्षा के लिए हम क्या करते हैं? क्या हम ऐसी स्थिती में उनका बीच-बचाव करना चाहेंगे? हमारे परिसर में एक पशु-चिकित्सक की कमी अभी भी खलती है.
इस जंगल परिसर की महत्ता दुगुनी होगी अगर हम शायद इन सवालों का कुछ हद तक ही सही निदान ढ़ुंढ़ पाएं . मैं कैम्पस के लोगों की जागरूकता की आकांक्षा करती हूँ. 'प्रकृति' हमारी अपनी टोली भी, इसमें आपका हमारा योगदान चाहेगी. और प्रकृति जो न जाने कब से असंतुलित है शायद इन छोटे प्रयासों की आशा तो रखे.

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